कुल्लू दशहरा 2024: भारत में कुल्लू के दशहरा की देश में सबसे अलग पहचान है। कुल्लू के दशहरा की शुरुआत हिमाचल प्रदेश में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने की दसवीं तारीख से होती है। इस पर्व की विशेष बात यह है की जब देश के अन्य भागो में दशहरा उत्सव समाप्त होता है तब कुल्लू का दशहरा आरंभ होता है। हिमाचल प्रदेश में दशहरा उत्सव एक दिन नहीं बल्कि सात दिनों तक मनाया जाता है।
हिमाचल प्रदेश में इस त्योहार को दशमी भी कहते हैं। कुल्लू का दशहरा न सिर्फ देश में बल्कि विश्व में भी सबसे अलग पहचान रखता है। जहां देश के अन्य हिस्सों में रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद का पुतला जलाया जाता है, जबकि कुल्लू के दशहरा में क्रोध, काम, लोभ, मोह, और अहंकार के विनाश के प्रतीक स्वरूप पांच जानवरों की बलि दी जाती है।
कुल्लू घाटी में विजयदशमी के त्योहार को मनाने की परंपरा अथवा प्रथा का आरंभ राजा जगत सिंह के शासनकाल से माना जाता है।
कुल्लू में दशहरे को मनाने का सबसे अलग और अनोखा अंदाज है, जो लोगों में बेहद लोकप्रिय है।
कहाँ का दशहरा विश्व प्रसिद्ध है (Kullu Dussehra)
भारत के हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. इसकी विश्व प्रसिद्धि का कारण इसका सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाना है। अपने अनोखे अंदाज के कारण ही कुल्लू दशहरा दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
कुल्लू दशहरा कब है: कुल्लू दशहरा थोड़ा अलग है क्योंकि इसका उत्सव तब शुरू होता है जब देश के बाकी हिस्सों में नौ दिनों तक चलने वाले नवरात्र त्योहार समाप्त हो जाता है। इस वर्ष, यह उत्सव शनिवार, 12 अक्टूबर, 2024 से शुरू होगा और सात दिनों तक चलेगा। कुल्लू में दशहरा एक सप्ताह तक चलने वाला त्योहार है, जो बड़ी संख्या में आगंतुकों और भव्य समारोहों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
कुल्लू का कौन सा त्यौहार विश्व प्रसिद्ध है
भारत में हिमाचल प्रदेश राज्य के कुल्लू ज़िले में वैसे तो साल भर विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाये जाते है, परन्तु यहाँ मनाया जाना वाला कुल्लू का दशहरा त्यौहार संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। इस महोत्सव में प्रतिवर्ष भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा का आयोजन होता है, साथ ही नरसिंह देव की जलेब भी निकाली जाती है।
कुल्लू दशहरा क्यों प्रसिद्ध है (Why Kullu Dussehra is Famous)
कुल्लू का दशहरा अपनी संस्कृति, विशिष्टता, अनोखापन, भव्यता, तथा ऐतिहासिक कारणों से पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। जब देश के अन्य भागो में दशहरा पर्व के उत्सव की समाप्ति होती है, उस समय हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में दशहरा उत्सव का आरम्भ होता है। यहाँ इस पर्व को सात दिन तक मनाया जाता है। इस दौरान भगवान रघुनाथ जी के भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। इस साल अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा का आयोजन 12 से 18 अक्टूबर (2024) तक किया जाएगा।
कुल्लू के दशहरा मेले का आयोजन कब होता है? (When will Kullu Dussehra starts)
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू के दशहरा मेले के आयोजन की शुरुआत आश्विन महीने की दसवीं तारीख को होती है। यह पर्व संस्कृति, रीतिरिवाज, परंपरा, और ऐतिहासिक कारणों से बहुत महत्व रखता है। जब भारत के अन्य हिस्सों में दशहरा विजयादशमी पर्व की समाप्ति होती है, जबकि उस दिन से हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले में इस त्योहार का उत्साह, रंग में और भी अधिक वृद्धि होने लगती है। यह उत्सव यहाँ के प्रसिद्ध ढालपुर मैदान में मनाया जाता है। इस साल कुल्लू दशहरा त्योहार 12 अक्टूबर, 2024 को शुरू होगा और 18 अक्टूबर, 2024 को संपन्न होगा।
दशहरे के दिन कौन सा विशेष उत्सव कुल्लू में मनाया जाता है?
वैसे तो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले में कई त्यौहार मनाए जाते हैं, लेकिन दशहरा या विजयदशमी का त्योहार खास तौर पर कुल्लू में मनाया जाता है। कुल्लू में दशहरा मनाने का सबसे अलग और अनोखा तरीका है, जो लोगों के बीच काफी लोकप्रिय है।कुल्लू के विशेष उत्सव दशहरा अथवा विजयदशमी का आरंभ प्रतिवर्ष आश्विन महीने की दसवीं तारीख को होता है।
जब देश के अन्य हिस्सों में दशहरा त्योहार समाप्त होता यहाँ उस दिन से इसकी शुरुआत होती है। यहाँ इस उत्सव को 7 दिन तक मनाया जाता है, इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक व् रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस पर्व के अंतिम दिन लोग बहुत सारी लकड़ियों को एकत्रित करके उसे जलाते हैं। ऐसा करने के पीछे लोगों का विश्वास है अथवा उनका मानना है कि वे लंका के राजा रावण के घर महल (लंका) को जला रहे हैं।
कुल्लू दशहरा की तारीख क्या है?
कुल्लू घाटी में इस त्योहार को दशमी कहते हैं तथा इसकी शुरुआत आश्विन महीने की दसवीं तारीख को होती है। इस साल 2023 में कुल्लू दशहरा पर्व 12 अक्तूबर से 18 अक्तूबर तक मनाया जाएगा। यहाँ यह उत्सव सात दिन तक मनाया जाता है, इस वर्ष देवभूमि हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी के सभी 3०० देवी देवताओं को आमंत्रण दिया जाएगा। अपनी अनूठी परम्परा के कारण कुल्लू दशहरा दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
कुल्लू दशहरा 2024 | विवरण |
कुल्लू दशहरा शुरू होने की तिथि (Opening date) | 12 अक्टूबर, 2024 |
कुल्लू दशहरा समाप्ति की तिथि (Closing date) | 18 अक्टूबर, 2024 |
टाइम (Duration) | 1 सप्ताह |
स्थान (Venue) | ढालपुर मैदान, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश (इंडिया) |
कुल्लू दशहरा का इतिहास
कुल्लू दशहरा कथा 1
ऐसा कहा जाता है कि जब कुल्लू के राजा जगत सिंह किसी गंभीर रोग से पीड़ित थे, तब एक साधु ने उन्हें इस रोग से ठीक होने के लिए भगवान रघुनाथ जी की स्थापना की सलाह दी। सन्यासी ने राजा को बताया की उनके स्वस्थ होने का यही एकमात्र उपाय है। अतः साधु कि सलाह अनुसार राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति की स्थापना की।
उसके पश्चात अयोध्या से भगवान रघुनाथ जी (श्रीराम) की प्रतिमा को कुल्लू लाया गया और उसकी स्थापना की। तत्पश्चात अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा के स्वास्थय में सुधार होने लगा तथा कुछ ही दिनों में वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए। इस घटना के बाद राजा ने अपना संपूर्ण राज्य एवं जीवन भगवान रघुनाथ जी की सेवा में समर्पित कर दिया।
कुल्लू दशहरा कथा 2
कुल्लू में दशहरा की शुरुआत राजा जगत सिंह के शासन काल से हुई, जिन्होंने 1637 से 1672 तक कुल्लू पर शासन किया था। एक किंवदंती है कि कुल्लू के राजा जगत सिंह जिन्हें सूचित किया गया था कि मोती से भरा कटोरा दुर्गा दत्त के कब्जे में था। वह गांव टिपरी का एक गरीब ब्राह्मण था।
राजा ने अपने सैनिकों व दरबारियों को ब्राह्मण से मोती लाने का निर्देश दिया। राजा के सैनिको द्वारा ब्राह्मण को बहुत परेशान किया गया, तथा यातना को असहनीय पाते हुए, उसने उनसे कहा कि वह मणिकरण जा रहा था तथा वापिस गाँव लौटने पर मोती राजा को स्वयं देने जाएगा।
जब राजा स्वयं गांव पहुंचे तो ब्राह्मण ने अपने परिवार के साथ खुद को घर में बंद कर लिया और घर में आग लगा दी। उसके बगल में बैठकर, उसने आग की हर छलांग पर एक तेज ब्लेड से अपना मांस काट दिया और राजा को उसकी अन्यायपूर्ण मांग के लिए “मोती लो, हे राजा” कहकर शाप दिया। इस दुर्घटना में ब्राह्मण का पूरा परिवार जलकर राख हो गया।
एक अंतराल के बाद कभी-कभी ऐसा हुआ कि राजा निर्दोष ब्राह्मण परिवार की आत्मा से त्रस्त हो गया, अंतरात्मा की आवाज तथा अपराध बोध से वह डगमगाया, उसने हर पल उसके द्वारा किए गए घातक पाप के तार और तीरों की दर्दनाक और गलती को महसूस किया।
अपराध-बोध और मतिभ्रम के कारण वह चावल के स्थान पर रेंगने वाले कीड़े और गिलास में पानी के स्थान पर मानव रक्त देखता था। राजा ने बहुत प्रयास भी किया वह किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उनकी बीमारी की खबर उनके पूरे राज्य में फैल गई और उनके दरबारियों, प्रमुख हकीमों, वैद्यों, डॉक्टरों और धार्मिक व्यक्तियों संतों आदि ने उनकी बीमारी के इलाज के सभी संभावित साधनों की खोज की, लेकिन राजा के मतिभ्रम को कोई नहीं रोक सका।
अंत में कृष्ण दत्त (पहाड़ी बाबा) नाम के एक बैरागी ने अपनी सलाह दी कि भगवान राम के आशीर्वाद के अलावा कोई भी दवा राजा को ठीक करने के लिए प्रभावी नहीं हो सकती है। इस दिशा में उन्होंने आगे सुझाव दिया कि राजा को भगवान राम की मूर्ति का चरणामृत लेना चाहिए।
इस विचार से राजा के मन में थोड़ी उम्मीद जगी और उसने अयोध्या से श्रीराम (रघुनाथ जी ) की एक पवित्र मूर्ति प्राप्त करने के लिए प्रयास तेज कर दिए । इस काम के लिए बैरागी कृष्ण दत्त के एक शिष्य जिसका नाम दामोदर दास था को इसके लिए चुना गया और इस कार्य को सिद्ध करने लिए प्रतिनियुक्त किया गया। उनके प्रयास अयोध्या से एक वास्तविक मूर्ति प्राप्त करने में सफल रहे।
दामोदर दास ने ‘गुटका सिद्धि ‘ नामक चमत्कारी शक्ति प्राप्त की थी। इस चमत्कारी शक्ति के माध्यम से वह जुलाई 1651 ई. में अयोध्या के ‘त्रेत नाथ’ मंदिर से पुजारी के साथ राम की मूर्ति के दुर्लभ टुकड़े को प्राप्त करने में सक्षम हुए थे, जिसे उस समय सुल्तानपुर कुल्लू में रघुनाथजी के मंदिर में स्थापित किया गया था, जिसमें विद्वान पुजारियों द्वारा सुझाए गए सभी अनुष्ठानों का पालन किया गया था।
यहां यह दर्ज करना रुचिकर हो सकता है कि अयोध्या से पुजारियों का एक विशेष वर्ग अनुष्ठान करने के लिए लाया गया था और उनके वंशज द्वारा अभी भी इस परंपरा को बनाए रखा गया हैं।
राजा जगत सिंह ने बैरागी कृष्ण दत्त के सुझावों का ईमानदारी से श्रद्धापूर्वक पालन किया और धीरे-धीरे उन्होंने भयानक बीमारी से उबरने के संकेत दिए। वह राम की दैवीय शक्ति से बहुत प्रभावित थे, इतना कि उन्होंने रघुनाथजी की इच्छा के लिए अपना सिंहासन भी त्याग दिया और रघुनाथजी के ‘सेवादार ‘ बन गए।
इस घटना का उनके राज्य में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और इसके परिणामस्वरूप सभी देवी और देवताओं ने रघुनाथजी की समग्र प्रभुता स्वीकार कर ली। राजा ने राज्य के सभी देवी-देवताओं के सभी ‘कारदारों’ को विजय दशमी के उत्सव के अवसर पर कुल्लू में इकट्ठा होने के लिए पहले रघुनाथजी को प्रणाम करने और फिर उसके बाद उत्सवों में भाग लेने का आदेश दिया।
अन्य प्रचलित कथा 3
कहा जाता है कि 17वीं शताब्दी में कुल्लू राज्य के मत्वपूर्ण राजा जगत सिंह के हाथों गलती से एक ब्राह्मण की मौत हो गई थी। जिसके कारण राजा को श्राप दिया गया था, इस घटना के बाद राजा जगत सिंह ने श्राप से मुक्ति तथा प्रायश्चित करने के लिए अपने राज सिंहासन का त्याग कर दिया और उस पर भगवान रघुनाथजी की मूर्ति को विराजमान कर दिया।
इसके साथ ही कुल्लू के राजा जगत सिंह ने कसम खाई कि अब से वह इस कुल्लू राज्य पर सिर्फ भगवान श्रीराम अथार्त रघुनाथ जी के वंशज ही राज करेंगे। कुल्लू के लोगों का ऐसा मानना है कि राजा जगत, प्रभु श्री राम की एक मूर्ति को लाने के लिए स्वयं उनके जन्मस्थान अयोध्या पहुंचे। कथाओं की मानें तो, कुछ दिन बाद वापस आने पर राजा जगत सिंह ने रघुनाथजी (श्रीराम) की उस प्रतिमा को अपने राज सिंहासन पर पुरे विधि विधान से स्थापित कर दिया।
कुल्लू जिले का इतिहास
कुल्लू रियासत देश की प्राचीन राजवंश राज्यों में से एक है कई पुराने पौराणिक ग्रन्थों में ‘कुल्लूत देश’ के नाम से इसका वर्णन मिलता है. प्राचीन वैदिक साहित्य में भी कूलूत देश का ज़िक्र किया गया है। कुल्लू रियासत की स्थापना राजा विहंगमणिपाल (Behangamani Pal) ने की थी।
ज्ञात ऐतिहासिक स्रोत के अनुसार, कुल्लू राज्य की स्थापना पहली शताब्दी ईस्वी में विहंगमणि पाल द्वारा की गई थी, और जिनके बारे में ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वे मुलत: इलाहाबाद के पास प्रयाग अथवा हरिद्वार (मायापुरी) से आए थे।
कुल्लू के अन्य महत्वपूर्ण राजा राजा जगत सिंह (1637-1672 ई.) थे. कुल्लू राज्य की मूल राजधानी जगतसुख में थी, जहाँ कुल्लू रियासत के प्रारंभिक राजाओं ने बारह पीढ़ियों तक शासन किया था। उसके पश्चात् राजा विशुद्ध पाल ने राजधानी को नगर में स्थानांतरित कर दिया और बाद में राजा जगत सिंह ने इसे सुल्तानपुर में स्थानांतरित कर दिया।
एक प्रचलित कथा के अनुसार रघुनाथ की प्रसिद्ध मूर्ति को राजा जगत सिंह के शासनकाल के दौरान एक ब्राह्मण ऋषि द्वारा जगत सिंह को दिए गए श्राप को दूर करने के लिए अयोध्या से कुल्लू लाया गया था। ऐसी मान्यता है की राजा जगत सिंह ने रघुनाथ जी की मूर्ति को राज सिंहासन पर बिठाया, खुद को मंदिर का पहला सेवक घोषित किया, और परिणामस्वरूप शाप भी हटा दिया गया। तब से ही, कुल्लू के विभिन्न राजाओं ने रघुनाथ के नाम से राज्य पर शासन किया, जो कुल्लू घाटी के प्रमुख देवता बने।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू शहर में दशहरा के दौरान मौसम का पूर्वानुमान
अगर आप अक्टूबर 2024 में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में अच्छे मौसम की उम्मीद के साथ दशहरा उत्सव की छुट्टी की योजना बना रहे हैं, तो आप मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी अवशय रखे। मौसम विभाग के पूर्वानुमान के अनुसार कुल्लू दशहरा उत्सव के दौरान 12 अक्तूबर से 18 अक्तूबर तक शहर का तापमान न्यूनतम 14 °C से अधिकतम 30°C तक रहेगा।
पर्यटकों को गर्मियों में सूती कपड़े, वसंत और शरद ऋतु में हल्के ऊनी और सर्दियों के मौसम में भारी ऊनी कपड़े ले जाने की सलाह दी जाती है।
कुल्लू दशहरा विशेष भोजन (Kullu Dussehra Special Food)
- सिड्डू
- जलेबी
- प्याज के पकौड़े
- मिर्च के पकोड़े
- पालक के पकोड़े
- बेसन की बर्फी
- शुद्ध दूध की हिमाचली चाय
कुल्लू दशहरा आधिकारिक वेबसाइट (Kullu Dussehra official website)
कुल्लू दशहरा से संबंधित सामान्य प्रश्न
u003cstrongu003eQ: कब शुरू होगा कुल्लू दशहरा 2024?u003c/strongu003e
u003cstrongu003eAns:u003c/strongu003e इस साल कुल्लू दशहरा उत्सव 12 अक्टूबर 2024 से शुरू होकर 18 अक्टूबर 2024 को समाप्त होगा।
u003cstrongu003eQ: कुल्लू घाटी किस राज्य में हैu003c/strongu003e?
u003cstrongu003eAns:u003c/strongu003e कुल्लू घाटी भारत के खूबसूरत राज्य हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। ब्यास नदी यहाँ की प्रमुख नदी है। यह कुल्लू घाटी हिमालय घाटी का ही हिस्सा है और अपने प्राचीन मंदिरों और देवदार व चीड़ से ढके ऊँचे पहाड़ों और सेब के बाग़ान के लिए जानी जाती है।
u003cstrongu003eQ: हम कैसे कह सकते हैं कि कुल्लू दशहरा एक अंतरराष्ट्रीय त्योहार है?u003c/strongu003e
u003cstrongu003eAns:u003c/strongu003e यह कुल्लू घाटी के ढालपुर मैदान, हिमाचल प्रदेश में मनाया जाता है। यहाँ पर भगवान रघुनाथ को कुल्लू घाटी के शासक देवता घोषित किया गया। हिमाचल प्रदेश की राज्य सरकार ने बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने वाले कुल्लू दशहरा को अंतर्राष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया है।
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